जिंगल बैल्स बस रहे हैं
साल खत्म हो रहा है
पर उससे पहले 25 दिसंबर
क्रिसमस आ रहा है,
क्रिसमस आ रहा है
क्रिसमस ट्री लायेंगे
उसे सजायेंगे
ऊँची डाली पर,
तारा लगायेंगे
अच्छे बच्चे बनेंगे,
सांता याद करेंगे,
तोहफे लायेंगे
हाथ मिलाएंगे
क्रिसमस आ रहा है,
क्रिसमस आ रहा है
क्रिसमस प्यार का उत्सव है,
जादू कर देता है,
मन को छू लेता है,
प्यार से भर देता है
क्रिसमस आ रहा है,
क्रिसमस आ रहा है…
क्रिसमस आया पास में, बच्चे करे पुकार
सान्ता लेकर आएंगे, झोला भर उपहार ।
झोले में उपहार है, और सर पे टोपी लाल
गोलू-मोलू गुड्डे जैसा, सान्ता लगे कमाल ।
टन-टन-टन टन-टन-टन घंटी वाला सान्ता आता
हो-हो-हो हो-हो-हो, हो-हो करके खूब हंसाता ।
सबको आता बहुत मजा, गाते गाना बार-बार
खुशियां लेकर आता है, क्रिसमस का त्यौहार
सान्ता के संग नाचे कूदे, आओ सारे करे धमाल
क्रिसमस के अगले हफ़्ते, आ जाएगा नया साल
रहे ना कोई बच्चा रोता, रहे ना कोई बड़ा उदास,
सबका क्रिसमस Merry हो, आओ ऐसा करे प्रयास
ठंडी ठंडी हवाओं में
कोई मैरी क्रिसमस गाता है
हर बार एक थैला भरकर
वो गिफ्ट लेकर आता है
माँ हमसे कहती है
वो बच्चो को करता है प्यार
हरे भरे क्रिसमस ट्री को
वो सुन्दर सजा के देता
दिसंबर 25 को आता वो
सांता – सांता कहलाता जो
ये मत सोचो कि तुम्हारे पास क्या नहीं है;
बल्कि, उसे सराहो जो तुम्हारे पास है और जो हो सकता है।
—
ये सोच कर दुखी मत हो कि तुम क्या नहीं हो;
बल्कि, ये सोच कर खुश हो कि तुम क्या हो और क्या बन सकते हो।
—
ये मत सोचो कि लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं;
बल्कि, ये सोचो कि तुम खुद अपने बारे में क्या सोचते हो और क्या सोच सकते हो।
—
ये मत सोचो कि कितना समय बीत गया;
बल्कि, ये सोचो कि कितना समय बाकी है और कितना मिल सकता है।
—
ये मत सोचो कि तुम फेल हो गए;
बल्कि, ये सोचो कि तुमने क्या सीखा और तुम क्या कर सकते हो।
—
ये मत सोचो कि तुमने क्या गलतियाँ कीं;
बल्कि, ये सोचो कि तुमने क्या सही किया और क्या सही कर सकते हो।
—
ये मत सोचो कि आज कितनी तकलीफ उठानी पड़ रही है;
बल्कि ये सोचो कि कल कितना शानदार होगा और हो सकता है।
—
ये मत सोचो कि क्या हो सकता था;
बल्कि, ये सोचो कि क्या है और क्या हो सकता है।
—
ये मत सोचो कि कप कितना खाली है;
बल्कि, ये सोचो कि कप कितना भरा है और कितना भरा जा सकता है।
—
ये मत सोचो कि तुमने क्या खोया;
बल्कि, ये सोचो कि तुमने क्या पाया और क्या पा सकते हो।
समय समय की बात है होली आज है कल भी होती थी
आज इन्टरनेट से बधाईयां देते कल थे देते लगा रंगों की
कल की बात है जैसे पडोसी होता होली पर आने पर खुश
आज की बात करें, पडोसी सोचे क्यों आये ये दिखे नाखुश
मैल मिलाप अब दूर का ही लगता अच्छा सोचे बच्चा बच्चा
लगा दिया थोड़ा रंग तो देखे ऐसे, जैसे जायेगा चबा कच्चा
त्यौहार नहीं मनाओगे तो संस्कार सब में कहाँ से आएंगे
अब तो सब त्यौहार फेसबुक व्हाट्सएप्प पर ही मनाएंगे
समय आएगा कुछ समय में ऐसा होली हो जाएगी गुम
होली दिखेगी फोटो में ढूंढेंगे उसे गूगल में मिल हम तुम
निकलो बताओ मनाओ सिखाओ होली है ऋतू का आगमन
मिलन का त्यौहार है, मनाओ मिलकर अभी सब अपना मन
बचाओ – बचाओ हमें बचाओ
बालिकायें ये पुकार रहीं,
नरक ये संसार है
यहाँ कदर नहीं बालिकाओं की,
पढ़ना लिखना व्यर्थ हो गया
लेना जन्म अनर्थ हो गया,
चलती नहीं सरकार यहाँ पर
यहाँ चलता भ्रष्टाचार है,
नरक ये संसार है, नरक ये संसार है..
रास्ते जा रही बालिका का
हुआ बलात्कार है,
कहर बरपा रही ये दुनिया
हम सब इनके आहार हैं,
नरक ये संसार है, नरक ये संसार है..
कर्म, धर्म सब छूट गए
वादे सारे टूट गए,
हिस्सा हैं हम राष्ट्र का
सारी दुनिया वाले भूल गए,
हर कसम हम तोड़ेंगे,
दुश्मन डर कर दौड़ेंगे,
बालिकाओं की इज्ज़त के लिए
कोई और नहीं बस हम लड़ेंगे,
उठाएंगे हथियार हम
मिटायेंगे अत्याचार हम,
आओ युवाओं लायें जागरूकता
उगता सूरज कभी न रुकता,
आओ हम भी ये पहचान बनायें
देश में अपना सम्मान बनायें,
और इस कार्य को हम सफ़ल बनायें
देश अपना स्वर्ग बनायें|
कोई अौर झुलाता है झूले मैं तो भी रो जाता हूँ,
मैं तो बस अपनी माँ की थपकी पाकर ही सो पाता हूँ।
—
कुछ ऐसा रिश्ता है मेरा मेरी माँ से
दर्द वो ले लेती है सारे और मैं बस मुस्कुराता हूँ।
—
यूँ तो जमाने के नजरों मैं मैं बड़ा हो गया हूँ,
पर दूर जब माँ से होता हूँ तो रो जाता हूँ।
—
चारदिवारी से घिरा वो कमरा बिन तेरे घर नहीं लगता माँ,
मैं हर रोज अपने ही कमरें मैं मेहमान हो जाता हूँ।
—
जब भी ज़माना मुझे कमजोर करने की कोशिश करता है,
याद करके तुझे माँ मजबूत बन जाता हूँ।
—
जब सोचता हूँ कुर्बानियां तेरी माँ
आंसुओं के समंदर में खो जाता हूँ।
—
मैं रात-रात भर जागता ही रहता हूँ माँ,
अब तेरे आँचल में छुप कर कहाँ सो पाता हूँ।
समय समय की बात है होली आज है कल भी होती थी
आज इन्टरनेट से बधाईयां देते कल थे देते लगा रंगों की
कल की बात है जैसे पडोसी होता होली पर आने पर खुश
आज की बात करें, पडोसी सोचे क्यों आये ये दिखे नाखुश
मैल मिलाप अब दूर का ही लगता अच्छा सोचे बच्चा बच्चा
लगा दिया थोड़ा रंग तो देखे ऐसे, जैसे जायेगा चबा कच्चा
त्यौहार नहीं मनाओगे तो संस्कार सब में कहाँ से आएंगे
अब तो सब त्यौहार फेसबुक व्हाट्सएप्प पर ही मनाएंगे
समय आएगा कुछ समय में ऐसा होली हो जाएगी गुम
होली दिखेगी फोटो में ढूंढेंगे उसे गूगल में मिल हम तुम
निकलो बताओ मनाओ सिखाओ होली है ऋतू का आगमन
मिलन का त्यौहार है, मनाओ मिलकर अभी सब अपना मन
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नही विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
खम ठोक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब ज़ोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
है छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नही जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
– श्री हरिवंशराय बच्चन की कविता(Poems of Harivansh Rai Bachchan)
हरिवंशराय बच्चन जी की ये कविता मैंने नेट पर एक वेबसाइट से ली है। इस कविता के लिए कवि की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है। हर एक लाइन मोतियों की तरह जड़ी है। इसे पढ़ने के बाद मन को बहुत साहस मिलता है। मैं हरिवंश राय बच्चन जी को इस प्रेरक कविता के लिए बहुत धन्यवाद देना चाहता हूँ जिनकी कविता हर पढ़ने वाले को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। दोस्तों इस कविता को एक बार ध्यान ने जरूर पढ़ना मेरा वादा है कि आपको नयी ऊर्जा मिलेगी। कविता कैसी लगी, ये नीचे कॉमेंट में जरूर लिखें।
धन्यवाद!!!!
कई लोग इस रचना को हरिवंशराय बच्चन जी द्वारा रचित मानते हैं। लेकिन श्री अमिताभ बच्चन ने अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में स्पष्ट किया है कि यह रचना सोहनलाल द्विवेदी जी की है।
आ रही रवि की सवारी!
नव किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी!
आ रही रवि की सवारी!
विहग बंदी और चारण,
गा रहे हैं कीर्ति गायन,
छोड़कर मैदान भागी तारकों की फौज सारी!
आ रही रवि की सवारी!
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह,
रात का राजा खड़ा है राह में बनकर भिखारी!
आ रही रवि की सवारी
देखो, टूट रहा है तारा – हरिवंशराय बच्चन
नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
हुआ न उडुगन में क्रंदन भी,
गिरे न आँसू के दो कण भी
किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक, देखता रहता दूर खड़ा तारक-दल सारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
विश्व सारा सो रहा है – हरिवंशराय बच्चन
हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इनका संग तजकर,
व्योम–व्यापी शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
भूमि पर सर सरित् निर्झर,
किंतु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
न्याय–न्यायधीश भू पर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
रुके न तू, थके न तू – हरिवंशराय बच्चन
धरा हिला, गगन गुँजा
नदी बहा, पवन चला
विजय तेरी, विजय तेरी
ज्योति सी जल, जला
भुजा–भुजा, फड़क–फड़क
रक्त में धड़क–धड़क
धनुष उठा, प्रहार कर
तू सबसे पहला वार कर
अग्नि सी धधक–धधक
हिरन सी सजग सजग
सिंह सी दहाड़ कर
शंख सी पुकार कर
रुके न तू, थके न तू
झुके न तू, थमे न तू
सदा चले, थके न तू
रुके न तू, झुके न तू
घुटनों से रेंगते रेंगते
कब पैरों पर खड़ा हुआ,
तेरी ममता की छाओं में
जाने कब बड़ा हुआ!
काला टीका दूध मलाई
आज भी सब कुछ वैसा है,
मैं ही मैं हूँ हर जगह
प्यार यह तेरा कैसा है?
सीधा साधा भोला भाला
मैं ही सबसे अच्छा हूँ,
कितना भी हो जाऊं बड़ा
माँ, मैं आज भी तेरा बच्चा हूँ!
पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए
शख्सियत ए ‘लख्ते-जिगर’, कहला न सका,
जन्नत के धनी वो पैर, कभी सहला न सका
पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए
शख्सियत ए ‘लख्ते-जिगर’, कहला न सका,
जन्नत के धनी वो पैर, कभी सहला न सका
गुरु की उर्जा सूर्य-सी, अम्बर-सा विस्तार.
गुरु की गरिमा से बड़ा, नहीं कहीं आकार.
गुरु का सद्सान्निध्य ही,जग में हैं उपहार.
प्रस्तर को क्षण-क्षण गढ़े, मूरत हो तैयार.
गुरु वशिष्ठ होते नहीं, और न विश्वामित्र.
तुम्हीं बताओ राम का, होता प्रखर चरित्र?
गुरुवर पर श्रद्धा रखें, हृदय रखें विश्वास.
निर्मल होगी बुद्धि तब, जैसे रुई- कपास.
गुरु की करके वंदना, बदल भाग्य के लेख.
बिना आँख के सूर ने, कृष्ण लिए थे देख.
गुरु से गुरुता ग्रहणकर, लघुता रख भरपूर.
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर.
गुरु ब्रह्मा-गुरु विष्णु है, गुरु ही मान महेश.
गुरु से अन्तर-पट खुलें, गुरु ही हैं परमेश.
गुरु की कर आराधना, अहंकार को त्याग.
गुरु ने बदले जगत में, कितने ही हतभाग.
गुरु की पारस दृष्टि से , लोह बदलता रूप.
स्वर्ण कांति-सी बुद्धि हो,ऐसी शक्ति अनूप.
गुरु ने ही लव-कुश गढ़े , बने प्रतापी वीर.
अश्व रोक कर राम का, चला दिए थे तीर.
गुरु ने साधे जगत के, साधन सभी असाध्य.
गुरु-पूजन, गुरु-वंदना, गुरु ही है आराध्य.
गुरु से नाता शिष्य का, श्रद्धा भाव अनन्य.
शिष्य सीखकर धन्य हो, गुरु भी होते धन्य.
गुरु के अंदर ज्ञान का, कल-कल करे निनाद.
जिसने अवगाहन किया, उसे मिला मधु-स्वाद.
गुरु के जीवन मूल्य ही, जग में दें संतोष.
अहम मिटा दें बुद्धि के, मिटें लोभ के दोष.
गुरु चरणों की वंदना, दे आनन्द अपार.
गुरु की पदरज तार दे, खुलें मुक्ति के द्वार.
गुरु की दैविक दृष्टि ने, हरे जगत के क्लेश.
पुण्य -कर्म- सद्कर्म से, बदल दिए परिवेश.
गुरु से लेकर प्रेरणा, मन में रख विश्वास.
अविचल श्रद्धा भक्ति ने, बदले हैं इतिहास.
गुरु में अन्तर ज्ञान का, धक-धक करे प्रकाश.
ज्ञान-ज्योति जाग्रत करे, करे पाप का नाश.
गुरु ही सींचे बुद्धि को, उत्तम करे विचार.
जिससे जीवन शिष्य का, बने स्वयं उपहार.
गुरु गुरुता को बाँटते, कर लघुता का नाश.
गुरु की भक्ति-युक्ति ही, काट रही भवपाश.
मजदूर हैं हम, मजबूर नहीं
चलता है परदेश कमाने हाथ में थैला तान
थैले में कुछ चना, चबेना, आलू और पिसान…
टूटी चप्पल, फटा पजामा मन में कुछ अरमान
ढंग की जो मिल जाये मजूरी तो मिल जाये जहान।।
साहब लोगों की कोठी पर कल फिर उसको जाना है
तवा नहीं है फिर भी उसको तन की भूख मिटाना है…
दो ईटों पर धरे फावड़ा रोटी सेंक रहा है
गीली लकड़ी सूखे आंसू फिर भी सेंक रहा है।।
धुंआ देखकर कबरा कुत्ता पूंछ हिलाता आया
सोचा उसने मिलेगा टुकड़ा, डेरा पास जमाया…
मेहनतकश इंसानों का वह सालन बना रहा है
टेढ़ी मेढ़ी बटलोई में आलू पका रहा है।।
होली और दिवाली आकर उसका खून सुखाती है
घर परिवार की देख के हालत खूब रूलाई आती है…
मुन्ना टाफी नहीं मांगता, गुड़िया गुमसुम रहती है
साहब लोगों के पिल्लों को देख के मन भरमाती है।।
फट गया कुरता फिर दादा का, अम्मा की सलवार
पता नहीं किस बात पे हो गई दोनों में तकरार…
थे अधभरे कनस्तर घर में थी ना ऐसी कंगाली
नहीं गयी है मुंह में उसके कल से एक निवाली।।
लगता गुड़िया की मम्मी ने छेड़ी है कोई रार
इसी बात पर हो गई होगी दोनों में तकरार…
दो ईटों पर धरे फावड़ा रोटी सेंक रहा है
गीली लकड़ी सूखे आंसू फिर भी सेंक रहा है।।
मित्रों मजदूर किसी भी राष्ट्र के लिए नींव का कार्य करते हैं| जिस आलिशान मकान में बैठकर हम सुकून से रह पाते हैं, जिस सड़क पर हम शान से गाड़ियाँ चलाते हैं, जिन मशीनी सुख सुविधाओं से हम अपने जीवन को आसान बनाते हैं वो सभी चीजें इन मजदूरों के द्वारा ही बनाई जाती हैं| ये मजदूर एक से एक बड़ी कोठियों का निर्माण करते हैं लेकिन जीवनभर अपने लिए कभी छोटा सा घर भी नहीं बना पाते| अगर ये मजदूर ना हों तो एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती|
1 मई को पूरे विश्व में मजदूर दिवस मनाया जाता है| इस दिन सभी मजदूर कर्मचारियों का अवकाश रहता है और लोग उनका आभार प्रकट करते हैं| इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए हमने आज ये कविता आपके समक्ष प्रस्तुत की है और आप सभी से आशा है कि आपको यह कविता बेहद पसंद आयेगी|
हिंदीसोच इस प्रगतिशील समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिए पिछले कई वर्षों से प्रयासरत है| आप सभी लोग भी हमारे इस प्रयास का हिस्सा बनें और हमारे साथ जुड़े रहें| आपको यह कविता कैसी लगी? हमें कमेन्ट करके जरुर बताएं…. अग्रिम धन्यवाद!!
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।
खग कुल-कुल सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये
अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री।
बीती विभावरी जाग री! कवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी इस कविता में उषाकाल (प्रातःकाल) का बेहद सुन्दर वर्णन किया है| जयशंकर प्रसाद नायिका से कहते हैं कि विभावरी यानि रात्रि बीत चुकी है अब तुम्हें जाग जाना चाहिए|
तुम्हारी आँखों का बचपन – जयशंकर प्रसाद की कविता
तुम्हारी आँखों का बचपन!
खेलता था जब अल्हड़ खेल,
अजिर के उर में भरा कुलेल,
हारता था हँस-हँस कर मन,
आह रे, व्यतीत जीवन!
साथ ले सहचर सरस वसन्त,
चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,
गूँजता किलकारी निस्वन,
पुलक उठता तब मलय-पवन।
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,
बिछल,चल थक जाता जब हार,
छिड़कता अपना गीलापन,
उसी रस में तिरता जीवन।
आज भी हैं क्या नित्य किशोर
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर
सरलता का वह अपनापन
आज भी हैं क्या मेरा धन!
तुम्हारी आँखों का बचपन!
तुम्हारी आँखों का बचपन – इस कविता में कवि कहते हैं कि जब बचपन था तो सबकुछ अपना था हँसते थे, खेलते थे, अल्हड़ मौज मस्ती करते थे वो बचपन के दिन अब केवल आखों में बसे हैं, क्या आज हम आज भी वैसे हैं जैसे बचपन में थे कितना सरल था वो बचपन|
हिमाद्रि तुंग शृंग से – Poem of Jaishankar Prasad in Hindi
हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती–
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती–‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्यदाह-सी,
सपूत मातृभूमि के–
रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य–सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो, जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!
हिमाद्रि तुंग शृंग से – जयशंकर प्रसाद की यह कविता देशभक्ति की भावना से ओत प्रोत है| इस कविता में कवि देश के सैनिकों और नौजवानों का उत्साह बढ़ाते हुए कहते हैं कि तुमको प्रतिज्ञा करनी है और हर मुश्किल का सामना करके आगे बढ़ते जाते जाना है|
झरना- जयशंकर प्रसाद की कविता
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।
कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।
प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना
कर गई प्लावित तन मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना-
बह चला, जैसे दृगजल ढरना।
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा
प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाँई में
बह चला झरना।
तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में॥
झरना – झरना कविता में जयशंकर प्रसाद झरने की सुंदरता पर प्रकाश डालते हैं| झरना की सुन्दर छटा और उसकी सुन्दर गिरती लहरें मन को भाती हैं इसे देखकर हृदय को बहुत सुन्दर लगता है|
सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है
समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है
वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है||
कोई अौर झुलाता है झूले मैं तो भी रो जाता हूँ,
मैं तो बस अपनी माँ की थपकी पाकर ही सो पाता हूँ।
—
कुछ ऐसा रिश्ता है मेरा मेरी माँ से
दर्द वो ले लेती है सारे और मैं बस मुस्कुराता हूँ।
—
यूँ तो जमाने के नजरों मैं मैं बड़ा हो गया हूँ,
पर दूर जब माँ से होता हूँ तो रो जाता हूँ।
—
चारदिवारी से घिरा वो कमरा बिन तेरे घर नहीं लगता माँ,
मैं हर रोज अपने ही कमरें मैं मेहमान हो जाता हूँ।
—
जब भी ज़माना मुझे कमजोर करने की कोशिश करता है,
याद करके तुझे माँ मजबूत बन जाता हूँ।
—
जब सोचता हूँ कुर्बानियां तेरी माँ
आंसुओं के समंदर में खो जाता हूँ।
—
मैं रात-रात भर जागता ही रहता हूँ माँ,
अब तेरे आँचल में छुप कर कहाँ सो पाता हूँ।
फाल्गुन में होली का दिन ऐसे जैसे मन मलंग
खेले होली,जैसे जवान तोड़ दे मस्ती में पलँग
मन में मस्ती की छाई है एक बार फिर नई उमंग
शरीर और मन डोल रहा जैसे नई नवेली तरंग
न रखे मन में किसी के प्रति द्वेष ईर्ष्या और भर्म
यारो होली है छोड़ दो सब को करे कैसा भी कर्म
मन के काले मैल को जला दो होली में इसी जन्म
रंग दें रंग लें सबका अपना तन मन होली में हम
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक…
वाकई बहुत ही जीवंत कविता लिखी है माखनलाल चतुर्वेदी जी ने। सही कहा गया है कि जहाँ ना पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि… देशभक्तों को समर्पित ये कविता अपने अंदर एक गहरा सन्देश छुपाए हुए है।
माखनलाल चतुर्वेदी जी इस कविता में बताते हैं कि जब माली अपने बगीचे से फूल तोड़ने जाता है तो जब माली फूल से पूछता है कि तुम कहाँ जाना चाहते हो? माला बनना चाहते हो या भगवान के चरणों में चढ़ाया जाना चाहते हो तो इस पर फूल कहता है –
मेरी इच्छा ये नहीं कि मैं किसी सूंदर स्त्री के बालों का गजरा बनूँ
मुझे चाह नहीं कि मैं दो प्रेमियों के लिए माला बनूँ
मुझे ये भी चाह नहीं कि किसी राजा के शव पे मुझे चढ़ाया जाये
मुझे चाह नहीं कि मुझे भगवान पर चढ़ाया जाये और मैं अपने आपको भागयशाली मानूं
हे वनमाली तुम मुझे तोड़कर उस राह में फेंक देना जहाँ शूरवीर मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना शीश चढाने जा रहे हों। मैं उन शूरवीरों के पैरों तले आकर खुद पर गर्व महसूस करूँगा।
ये कविता काफी लोगों ने हिंदी की किताबों में भी पढ़ी होगी लेकिन इसे पढ़कर रोम रोम खिल उठता है और एक देशभक्ति की भावना दिल में आती है। आपको ये कविता कैसी लगी ये कमेंट करके हमें जरूर बताएं,, धन्यवाद
फाल्गुन में होली का दिन ऐसे जैसे मन मलंग
खेले होली,जैसे जवान तोड़ दे मस्ती में पलँग
मन में मस्ती की छाई है एक बार फिर नई उमंग
शरीर और मन डोल रहा जैसे नई नवेली तरंग
न रखे मन में किसी के प्रति द्वेष ईर्ष्या और भर्म
यारो होली है छोड़ दो सब को करे कैसा भी कर्म
मन के काले मैल को जला दो होली में इसी जन्म
रंग दें रंग लें सबका अपना तन मन होली में हम
पक्की सड़कें, ऊंचे घर हैं चारो ओर मगर, बचपन की वो कच्ची गलियां भूल नहीं सकता।
मंहगी-मंहगी मोटर हैं, कारें हैं चारों ओर, पर वो घंटी वाली लाल साइकिल भूल नहीं सकता।
झूले वाले आ जाते हैं अक्सर यहां मगर, जाने क्यों वो पेड़ की डाली भूल नहीं सकता।
चाकलेट और टाफी के डिब्बे घर में रखे हैं फिर भी खट्टा मिट्ठा चूरन अपना भूल नहीं सकता।
मोबाइल ने बना दिया है सब कुछ बड़ा सरल, पर जाने क्यूं वो पोस्टकार्ड निराला भूल नहीं सकता।
सौ – सौ चैनल टीवी पर आते हैं रातो दिन, पर बुद्धवार का चित्रहार मै भूल नहीं सकता।
कम्प्यूटर पर गेम खेलना अच्छा लगता है, पर पोसम पा और इक्खल दुक्खन भूल नहीं सकता।
चाइना की पिचकारी ने मचा रखी है धूम बहुत, पर होली वाला कींचड़ फिर भी भूल नहीं सकता।
मोबाइल की घण्टी से खुल जाती है नींद मगर, चिड़ियों की वो चूं चूं चैं चैं भूल नहीं सकता।
बिग बाज़ार से लेकर आते मंहगे – मंहगे फल, पर बगिया की वो कच्ची अमिया भूल नहीं सकता।
सुपरमैन और हल्क की फिल्में अच्छी तो लगती हैं पर, चाचा चैधरी, बिल्लू, पिंकी भूल नहीं सकता।
बड़े ब्रैण्ड के जूते चप्पल चलते सालों साल मगर, सिली हुई वो टूटी चप्पल भूल नहीं सकता।
बनते हैं हर रोज़ यहां दोस्त नये अक्सर, पर बचपन की वो टोली अपनी भूल नहीं सकता।
बारिश में अब पापकार्न घर में ही मिलता है, पर भरभूजे की सोंधी लइया भूल नहीं सकता।
दोस्तों के संग वाटर पार्क जाता हूं मै अक्सर, पर गुड़िया के दिन की बड़ी नहरिया भूल नहीं सकता।
सोफे पर बैठे – बैठे जाने क्यूं लगता है मुझको, आंगन की वो टूटी खटिया भूल नहीं सकता।
पढ़ लिख कर मै आज सयाना क्यूं न बन जाऊं मगर, ट्यूशन वाले मास्टर जी को भूल नहीं सकता।
अब जेब में रहते पैसे हर दम, पर मां – पापा की दी हुई अठन्नी भूल नहीं सकता।
कुछ भी हो जाये जीवन में पर इतना निष्चित है मित्रों, मरते दम तक अपना बचपन भूल नहीं सकता।
सेना की जान जरूरी है,
या जबरन का मानवाधिकार जरूरी है?
—
जब बात देश की गरिमा की हो,
तो क्या अभिव्यक्ति का अधिकार जरूरी है?
—
बात बहुत हुई बरसों-तरसों,
अब एक लात जरूरी है।।
—
छोड़ो करना चर्चा टेबल पर,
सर्जिकल स्ट्राइक दो-चार जरूरी है।।
—
जब तक ख़तम हों ना जाएं ये कीड़े,
गोली की बौछार जरूरी है।।
—
बुजदिल हमला करते छिप-छिप कर हम पर,
अब कुनबे मेें भी उनके हाहाकार जरुरी है।।
—
चोटिल होती माँ की ममता घायल आँचल जिनसे है,
सीना ताने वो चलते हैं, अब उनकी हार जरुरी है ।।
—
बेसुध बैठी है जनता हम खुद ही खुद मेें उलझे है,
जो सुलगे ना हम इन बलिदानों पर तो खुद पे धिक्कार जरुरी है।।
—
काटे घर में बैठे दुश्मन एक ऐसी तलवार जरुरी है,
सेना की जान ज़रूरी है… सेना की जान ज़रूरी है…
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।
खग कुल-कुल सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये
अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री।
बीती विभावरी जाग री! कवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी इस कविता में उषाकाल (प्रातःकाल) का बेहद सुन्दर वर्णन किया है| जयशंकर प्रसाद नायिका से कहते हैं कि विभावरी यानि रात्रि बीत चुकी है अब तुम्हें जाग जाना चाहिए|
तुम्हारी आँखों का बचपन – जयशंकर प्रसाद की कविता
तुम्हारी आँखों का बचपन!
खेलता था जब अल्हड़ खेल,
अजिर के उर में भरा कुलेल,
हारता था हँस-हँस कर मन,
आह रे, व्यतीत जीवन!
साथ ले सहचर सरस वसन्त,
चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,
गूँजता किलकारी निस्वन,
पुलक उठता तब मलय-पवन।
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,
बिछल,चल थक जाता जब हार,
छिड़कता अपना गीलापन,
उसी रस में तिरता जीवन।
आज भी हैं क्या नित्य किशोर
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर
सरलता का वह अपनापन
आज भी हैं क्या मेरा धन!
तुम्हारी आँखों का बचपन!
तुम्हारी आँखों का बचपन – इस कविता में कवि कहते हैं कि जब बचपन था तो सबकुछ अपना था हँसते थे, खेलते थे, अल्हड़ मौज मस्ती करते थे वो बचपन के दिन अब केवल आखों में बसे हैं, क्या आज हम आज भी वैसे हैं जैसे बचपन में थे कितना सरल था वो बचपन|
हिमाद्रि तुंग शृंग से – Poem of Jaishankar Prasad in Hindi
हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती–
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती–‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्यदाह-सी,
सपूत मातृभूमि के–
रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य–सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो, जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!
हिमाद्रि तुंग शृंग से – जयशंकर प्रसाद की यह कविता देशभक्ति की भावना से ओत प्रोत है| इस कविता में कवि देश के सैनिकों और नौजवानों का उत्साह बढ़ाते हुए कहते हैं कि तुमको प्रतिज्ञा करनी है और हर मुश्किल का सामना करके आगे बढ़ते जाते जाना है|
झरना- जयशंकर प्रसाद की कविता
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।
कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।
प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना
कर गई प्लावित तन मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना-
बह चला, जैसे दृगजल ढरना।
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा
प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाँई में
बह चला झरना।
तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में॥
झरना – झरना कविता में जयशंकर प्रसाद झरने की सुंदरता पर प्रकाश डालते हैं| झरना की सुन्दर छटा और उसकी सुन्दर गिरती लहरें मन को भाती हैं इसे देखकर हृदय को बहुत सुन्दर लगता है|
सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है
समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है
वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है||
कब्र के आगोश में जब थक के सो जाती है माँ,
तब कहीं जाकर थोड़ा सुकून पाती है माँ,
फिक्र में बच्चों के कुछ ऐसे ही घुल जाती है माँ,
नौजवा होते हुए बूढ़ी नज़र आती है माँ,
कब ज़रूरत हो मेरे बच्चे को इतना सोच कर,
जागती रहती है आँखें और सो जाती है माँ,
रूह के रिश्तों की ये गहराईयाँ तो देखिये,
चोट लगती है हमे और चिल्लाती है माँ,
लौट कर वापस सफर से जब भी घर आती है माँ,
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ,
शुक्रिया हो नही सकता कभी उसका अदा,
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है माँ,
मरते दम बच्चा अगर आ पाये ना परदेस से,
अपनी दोनों पुतलियाँ चौखट पे रख जाती है माँ,
प्यार कहते है किसे और ममता क्या चीज है,
ये तो उन बच्चों से पूछो,के जिनकी मर जाती है माँ।
सारे जहाँ से अच्छा
हिंदुस्तान हमारा
हम बुलबुलें हैं उसकी
वो गुलसिताँ हमारा।
परबत वो सबसे ऊँचा
हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा
वो पासबाँ हमारा।
गोदी में खेलती हैं
जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिनके दम से
रश्क-ए-जिनाँ हमारा।
मज़हब नहीं सिखाता
आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन है
हिंदुस्तान हमारा।
जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा
जहाँ सत्य, अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा
ये धरती वो जहाँ ऋषि मुनि जपते प्रभु नाम की माला
जहाँ हर बालक एक मोहन है और राधा हर एक बाला
जहाँ सूरज सबसे पहले आ कर डाले अपना फेरा
वो भारत देश है मेरा
अलबेलों की इस धरती के त्योहार भी हैं अलबेले
कहीं दीवाली की जगमग है कहीं हैं होली के मेले
जहाँ राग रंग और हँसी खुशी का चारों ओर है घेरा
वो भारत देश है मेरा
जब आसमान से बातें करते मंदिर और शिवाले
जहाँ किसी नगर में किसी द्वार पर कोई न ताला डाले
प्रेम की बंसी जहाँ बजाता है ये शाम सवेरा
वो भारत देश है मेरा
होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन।
हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन।
होगी शांति चारों ओर, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होगी शांति चारों ओर एक दिन।
नहीं डर किसी का आज एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज एक दिन।
जन गण मन अधि नायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा,
द्राविण उत्कल बंग।
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा,
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे,
तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जय-गाथा।
जन-गण-मंगलदायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता।
जय हे! जय हे! जय हे!
जय जय जय जय हे!
ये मत सोचो कि तुम्हारे पास क्या नहीं है;
बल्कि, उसे सराहो जो तुम्हारे पास है और जो हो सकता है।
—
ये सोच कर दुखी मत हो कि तुम क्या नहीं हो;
बल्कि, ये सोच कर खुश हो कि तुम क्या हो और क्या बन सकते हो।
—
ये मत सोचो कि लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं;
बल्कि, ये सोचो कि तुम खुद अपने बारे में क्या सोचते हो और क्या सोच सकते हो।
—
ये मत सोचो कि कितना समय बीत गया;
बल्कि, ये सोचो कि कितना समय बाकी है और कितना मिल सकता है।
—
ये मत सोचो कि तुम फेल हो गए;
बल्कि, ये सोचो कि तुमने क्या सीखा और तुम क्या कर सकते हो।
—
ये मत सोचो कि तुमने क्या गलतियाँ कीं;
बल्कि, ये सोचो कि तुमने क्या सही किया और क्या सही कर सकते हो।
—
ये मत सोचो कि आज कितनी तकलीफ उठानी पड़ रही है;
बल्कि ये सोचो कि कल कितना शानदार होगा और हो सकता है।
—
ये मत सोचो कि क्या हो सकता था;
बल्कि, ये सोचो कि क्या है और क्या हो सकता है।
—
ये मत सोचो कि कप कितना खाली है;
बल्कि, ये सोचो कि कप कितना भरा है और कितना भरा जा सकता है।
—
ये मत सोचो कि तुमने क्या खोया;
बल्कि, ये सोचो कि तुमने क्या पाया और क्या पा सकते हो।
मां फल-सब्जी जब काटती है,
उंगली पर उस को बांटती है,
चाकू की धार हो तेज़ मगर,
न फ़िक्र उसे, न कोई डर
वह धार के रुख़ पहचानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
—
ग़म, गुस्सा हो या बीमारी हो,
जैसी भी कोई दुश्वारी हो,
लेकिन वह ज़रा ना घबराए,
हर मसला पल में सुलझाए,
करती है वही, जो ठानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
—
करती है काम वह खड़ी-खड़ी,
जैसे हो उसे जादू की छड़ी,
आखिर वह क्यों थकती ही नहीं,
कल की राहें तकती ही नहीं,
वह आज की बात को मानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
—
बस एक ही आंचल है उसको,
वह काम बहुत उससे लेती,
कभी साफ करे, बर्तन पकड़े,
कुछ बांध के गांठ लगा लेती,
कभी पानी,दूध को छानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
मजदूर हैं हम, मजबूर नहीं
चलता है परदेश कमाने हाथ में थैला तान
थैले में कुछ चना, चबेना, आलू और पिसान…
टूटी चप्पल, फटा पजामा मन में कुछ अरमान
ढंग की जो मिल जाये मजूरी तो मिल जाये जहान।।
साहब लोगों की कोठी पर कल फिर उसको जाना है
तवा नहीं है फिर भी उसको तन की भूख मिटाना है…
दो ईटों पर धरे फावड़ा रोटी सेंक रहा है
गीली लकड़ी सूखे आंसू फिर भी सेंक रहा है।।
धुंआ देखकर कबरा कुत्ता पूंछ हिलाता आया
सोचा उसने मिलेगा टुकड़ा, डेरा पास जमाया…
मेहनतकश इंसानों का वह सालन बना रहा है
टेढ़ी मेढ़ी बटलोई में आलू पका रहा है।।
होली और दिवाली आकर उसका खून सुखाती है
घर परिवार की देख के हालत खूब रूलाई आती है…
मुन्ना टाफी नहीं मांगता, गुड़िया गुमसुम रहती है
साहब लोगों के पिल्लों को देख के मन भरमाती है।।
फट गया कुरता फिर दादा का, अम्मा की सलवार
पता नहीं किस बात पे हो गई दोनों में तकरार…
थे अधभरे कनस्तर घर में थी ना ऐसी कंगाली
नहीं गयी है मुंह में उसके कल से एक निवाली।।
लगता गुड़िया की मम्मी ने छेड़ी है कोई रार
इसी बात पर हो गई होगी दोनों में तकरार…
दो ईटों पर धरे फावड़ा रोटी सेंक रहा है
गीली लकड़ी सूखे आंसू फिर भी सेंक रहा है।।
मित्रों मजदूर किसी भी राष्ट्र के लिए नींव का कार्य करते हैं| जिस आलिशान मकान में बैठकर हम सुकून से रह पाते हैं, जिस सड़क पर हम शान से गाड़ियाँ चलाते हैं, जिन मशीनी सुख सुविधाओं से हम अपने जीवन को आसान बनाते हैं वो सभी चीजें इन मजदूरों के द्वारा ही बनाई जाती हैं| ये मजदूर एक से एक बड़ी कोठियों का निर्माण करते हैं लेकिन जीवनभर अपने लिए कभी छोटा सा घर भी नहीं बना पाते| अगर ये मजदूर ना हों तो एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती|
1 मई को पूरे विश्व में मजदूर दिवस मनाया जाता है| इस दिन सभी मजदूर कर्मचारियों का अवकाश रहता है और लोग उनका आभार प्रकट करते हैं| इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए हमने आज ये कविता आपके समक्ष प्रस्तुत की है और आप सभी से आशा है कि आपको यह कविता बेहद पसंद आयेगी|
हिंदीसोच इस प्रगतिशील समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिए पिछले कई वर्षों से प्रयासरत है| आप सभी लोग भी हमारे इस प्रयास का हिस्सा बनें और हमारे साथ जुड़े रहें| आपको यह कविता कैसी लगी? हमें कमेन्ट करके जरुर बताएं…. अग्रिम धन्यवाद!!
माँ सरस्वती की पूजा के लिए सरस्वती वंदना गीत का विशेस महत्व है| माँ सरस्वती ज्ञान की देवी और भगवान ब्रह्मा की मानसपुत्री हैं| ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती श्वेत वस्त्र धारण करती हैं और उनके हाथों में सदैव वीणा शोभायमान रहती है| समस्त छात्रों और ज्ञानार्जन के इच्छुक व्यक्तियों को माँ सरस्वती की वंदना करनी चाहिए, क्यूंकि माँ ज्ञान का दात्री हैं उन्हीं की कृपा से हमारी बुद्धि और मन कार्य करते हैं| हम यहाँ सरस्वती वंदना गीत शेयर कर रहे हैं| विद्यालयों में पढने वाले छात्र व छात्रा इनको अपने पाठ्यक्रम में भी शामिल कर सकते हैं –
माँ सरस्वती वंदना संस्कृत में
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृताया
वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभि र्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां
जगद्व्यापिनींवीणापुस्तकधारिणीमभयदां।
जाड्यान्धकारापहाम्हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं
पद्मासने संस्थिताम्वन्दे तां परमेश्वरीं
भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥2॥
सरस्वती वंदना : हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
हे हंस वाहिनी ज्ञान दायिनी
अम्ब विमल मति दे, अम्ब विमल मति दे…
जग सिर मौर बनाएँ भारत
वह बल विक्रम दे, अम्ब विमल मति दे…
साहस शील ह्रदय में भर दे,
जीवन त्याग तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे, स्वाभिमान भर दे…
हे हंस वाहिनी ज्ञान दायिनी,
अम्ब विमल मति दे, अम्ब विमल मति दे …
लव-कुश, ध्रुव प्रहलाद बने,
हम मानवता का त्राश हरे हम,
सीता सावित्री दुर्गा माँ फिर घर-घर भर दे…
हे हंस वाहिनी ज्ञान दायिनी,
अम्ब विमल मति दे, अम्ब विमल मति दे…
सरस्वती वंदना : वर दे वीणा वादिनी
“वीणावादिनी”
वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्र रव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
सरस्वती वंदना हे शारदे माँ
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ , अज्ञानता से हमें तार दे माँ ,
तू स्वर की देवी , ये संगीत तुझसे ,
हर शब्द तेरा , है हर गीत तुझसे ,
हम हैं अकेले , हम हैं अधूरे ,
तेरी शरण में , हमें प्यार दे माँ
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ ,
अज्ञानता से हमें तार दे माँ…..
तू श्वेत वर्णी कमल पर विराजे ,
हाथों में वीणा मुकुट सर पे साजे ,
मन से हमारे मिटा दो अँधेरे ,
हमको उजालों का संसार दो माँ ,
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ ,
अज्ञानता से हमें तार दे माँ…..
ऋषियों ने समझी , है मुनियों ने जानी ,
वेदों की भाषा ,पुराणों की वाणी ,
हम भी तो समझे , हम भी तो जाने ,
विद्या का हमको भी अधिकार दे माँ ,
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ ,
अज्ञानता से हमें तार दे माँ…..
पक्की सड़कें, ऊंचे घर हैं चारो ओर मगर, बचपन की वो कच्ची गलियां भूल नहीं सकता।
मंहगी-मंहगी मोटर हैं, कारें हैं चारों ओर, पर वो घंटी वाली लाल साइकिल भूल नहीं सकता।
झूले वाले आ जाते हैं अक्सर यहां मगर, जाने क्यों वो पेड़ की डाली भूल नहीं सकता।
चाकलेट और टाफी के डिब्बे घर में रखे हैं फिर भी खट्टा मिट्ठा चूरन अपना भूल नहीं सकता।
मोबाइल ने बना दिया है सब कुछ बड़ा सरल, पर जाने क्यूं वो पोस्टकार्ड निराला भूल नहीं सकता।
सौ – सौ चैनल टीवी पर आते हैं रातो दिन, पर बुद्धवार का चित्रहार मै भूल नहीं सकता।
कम्प्यूटर पर गेम खेलना अच्छा लगता है, पर पोसम पा और इक्खल दुक्खन भूल नहीं सकता।
चाइना की पिचकारी ने मचा रखी है धूम बहुत, पर होली वाला कींचड़ फिर भी भूल नहीं सकता।
मोबाइल की घण्टी से खुल जाती है नींद मगर, चिड़ियों की वो चूं चूं चैं चैं भूल नहीं सकता।
बिग बाज़ार से लेकर आते मंहगे – मंहगे फल, पर बगिया की वो कच्ची अमिया भूल नहीं सकता।
सुपरमैन और हल्क की फिल्में अच्छी तो लगती हैं पर, चाचा चैधरी, बिल्लू, पिंकी भूल नहीं सकता।
बड़े ब्रैण्ड के जूते चप्पल चलते सालों साल मगर, सिली हुई वो टूटी चप्पल भूल नहीं सकता।
बनते हैं हर रोज़ यहां दोस्त नये अक्सर, पर बचपन की वो टोली अपनी भूल नहीं सकता।
बारिश में अब पापकार्न घर में ही मिलता है, पर भरभूजे की सोंधी लइया भूल नहीं सकता।
दोस्तों के संग वाटर पार्क जाता हूं मै अक्सर, पर गुड़िया के दिन की बड़ी नहरिया भूल नहीं सकता।
सोफे पर बैठे – बैठे जाने क्यूं लगता है मुझको, आंगन की वो टूटी खटिया भूल नहीं सकता।
पढ़ लिख कर मै आज सयाना क्यूं न बन जाऊं मगर, ट्यूशन वाले मास्टर जी को भूल नहीं सकता।
अब जेब में रहते पैसे हर दम, पर मां – पापा की दी हुई अठन्नी भूल नहीं सकता।
कुछ भी हो जाये जीवन में पर इतना निष्चित है मित्रों, मरते दम तक अपना बचपन भूल नहीं सकता।
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
हरिवंशराय बच्चन जी की ये कविता मैंने नेट पर एक वेबसाइट से ली है। इस कविता के लिए कवि की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है। हर एक लाइन मोतियों की तरह जड़ी है। इसे पढ़ने के बाद मन को बहुत साहस मिलता है। मैं हरिवंश राय बच्चन जी को इस प्रेरक कविता के लिए बहुत धन्यवाद देना चाहता हूँ जिनकी कविता हर पढ़ने वाले को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। दोस्तों इस कविता को एक बार ध्यान ने जरूर पढ़ना मेरा वादा है कि आपको नयी ऊर्जा मिलेगी। कविता कैसी लगी, ये नीचे कॉमेंट में जरूर लिखें।
धन्यवाद!!!!
आ रही रवि की सवारी!
नव किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी!
आ रही रवि की सवारी!
विहग बंदी और चारण,
गा रहे हैं कीर्ति गायन,
छोड़कर मैदान भागी तारकों की फौज सारी!
आ रही रवि की सवारी!
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह,
रात का राजा खड़ा है राह में बनकर भिखारी!
आ रही रवि की सवारी
देखो, टूट रहा है तारा – हरिवंशराय बच्चन
नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
हुआ न उडुगन में क्रंदन भी,
गिरे न आँसू के दो कण भी
किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक, देखता रहता दूर खड़ा तारक-दल सारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
विश्व सारा सो रहा है – हरिवंशराय बच्चन
हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इनका संग तजकर,
व्योम–व्यापी शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
भूमि पर सर सरित् निर्झर,
किंतु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
न्याय–न्यायधीश भू पर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
रुके न तू, थके न तू – हरिवंशराय बच्चन
धरा हिला, गगन गुँजा
नदी बहा, पवन चला
विजय तेरी, विजय तेरी
ज्योति सी जल, जला
भुजा–भुजा, फड़क–फड़क
रक्त में धड़क–धड़क
धनुष उठा, प्रहार कर
तू सबसे पहला वार कर
अग्नि सी धधक–धधक
हिरन सी सजग सजग
सिंह सी दहाड़ कर
शंख सी पुकार कर
रुके न तू, थके न तू
झुके न तू, थमे न तू
सदा चले, थके न तू
रुके न तू, झुके न तू
∼ हरिवंश राय बच्चन
माँ सरस्वती की पूजा के लिए सरस्वती वंदना गीत का विशेस महत्व है| माँ सरस्वती ज्ञान की देवी और भगवान ब्रह्मा की मानसपुत्री हैं| ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती श्वेत वस्त्र धारण करती हैं और उनके हाथों में सदैव वीणा शोभायमान रहती है| समस्त छात्रों और ज्ञानार्जन के इच्छुक व्यक्तियों को माँ सरस्वती की वंदना करनी चाहिए, क्यूंकि माँ ज्ञान का दात्री हैं उन्हीं की कृपा से हमारी बुद्धि और मन कार्य करते हैं| हम यहाँ सरस्वती वंदना गीत शेयर कर रहे हैं| विद्यालयों में पढने वाले छात्र व छात्रा इनको अपने पाठ्यक्रम में भी शामिल कर सकते हैं –
माँ सरस्वती वंदना संस्कृत में
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृताया
वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभि र्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां
जगद्व्यापिनींवीणापुस्तकधारिणीमभयदां।
जाड्यान्धकारापहाम्हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं
पद्मासने संस्थिताम्वन्दे तां परमेश्वरीं
भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥2॥
सरस्वती वंदना : हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
हे हंस वाहिनी ज्ञान दायिनी
अम्ब विमल मति दे, अम्ब विमल मति दे…
जग सिर मौर बनाएँ भारत
वह बल विक्रम दे, अम्ब विमल मति दे…
साहस शील ह्रदय में भर दे,
जीवन त्याग तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे, स्वाभिमान भर दे…
हे हंस वाहिनी ज्ञान दायिनी,
अम्ब विमल मति दे, अम्ब विमल मति दे …
लव-कुश, ध्रुव प्रहलाद बने,
हम मानवता का त्राश हरे हम,
सीता सावित्री दुर्गा माँ फिर घर-घर भर दे…
हे हंस वाहिनी ज्ञान दायिनी,
अम्ब विमल मति दे, अम्ब विमल मति दे…
सरस्वती वंदना : वर दे वीणा वादिनी
“वीणावादिनी”
वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्र रव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
सरस्वती वंदना हे शारदे माँ
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ , अज्ञानता से हमें तार दे माँ ,
तू स्वर की देवी , ये संगीत तुझसे ,
हर शब्द तेरा , है हर गीत तुझसे ,
हम हैं अकेले , हम हैं अधूरे ,
तेरी शरण में , हमें प्यार दे माँ
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ ,
अज्ञानता से हमें तार दे माँ…..
तू श्वेत वर्णी कमल पर विराजे ,
हाथों में वीणा मुकुट सर पे साजे ,
मन से हमारे मिटा दो अँधेरे ,
हमको उजालों का संसार दो माँ ,
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ ,
अज्ञानता से हमें तार दे माँ…..
ऋषियों ने समझी , है मुनियों ने जानी ,
वेदों की भाषा ,पुराणों की वाणी ,
हम भी तो समझे , हम भी तो जाने ,
विद्या का हमको भी अधिकार दे माँ ,
हे शारदे माँ , हे शारदे माँ ,
अज्ञानता से हमें तार दे माँ…..
तेरी बुराइयों को हर अखबार कहता है..
और तू मेरे गाँव को गँवार कहता है….
ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है,
तू चुल्लू भर पानी को वाटर पार्क कहता है…
थक गया है हर शख्स काम करते करते,
तू इसे अमीरी का बाजार कहता है…
गाँव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,
तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है…
मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहा है,
तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है…
जिनकी सेवा में बिता देते सारा जीवन,
तू उन माँ-बाप को खुद पर बोझ कहता है…
वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है…
बड़े बड़े मसले हल करती यहां पंचायतें,
तू अँधी भष्ट दलीलों को दरबार कहता है…
बैठ जाते हैं अपने पराये साथ बैलगाड़ी में,
पूरा परिवार भी ना बैठ पाये उसे तू कार कहता है…
अब बच्चे भी बडों का आदर भूल बैठे हैं,
तू इस नये दौर को संस्कार कहता है…
जिंदा है आज भी गाँव में देश की संस्कृति,
तू भूल के अपनी सभ्यता खुद को तू शहर कहता है…!!
कवि ने अपनी इस कविता में एक-एक शब्द को गहरी भावनाओं के साथ पिरोया है| जिस प्रकार हर तरफ अब शहरीकरण बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे ही लोगों का मानसिक स्तर भी नीचे गिरता जा रहा है|
अब संस्कारों की बात कौन करता है, साहब हर इंसान अब सिर्फ पैसों की बात करता है|
माँ बाप अपने बच्चों के लिए अपने सारे सुख कुर्बान कर देते हैं और बच्चे बड़े होकर शहर पैसा कमाने चल देते हैं|
बूढी आँखें थक-थककर अपने बच्चों की राह तकती हैं लेकिन पैसे की चकाचौंध इंसान को अँधा कर देती है| कहने को शहर अमीर है लेकिन यहाँ सिर्फ पैसे के अमीर लोग रहते हैं, दिल का अमीर तो कोई कोई ही मिलता है|
परिवार, रिश्ते नाते अब सब बस एक बंधन बनकर रह गए हैं,
आत्मीयता और प्यार तो उनमें रहा ही नहीं,
जो माँ बाप अपना खून पसीना एक करके पढ़ाते हैं
उनको बोलते हैं कि आपने हमारे लिए कुछ किया ही नहीं|
इससे तो अपना गाँव अच्छा है कम से कम लोगों के दिल में एक दूसरे के लिए प्यार तो है, परेशानियों में एक दूसरे का साथ तो है, पैसा चाहे कम हो लेकिन संस्कार और दुलार तो है|
ये कविता आपको कैसी लगी दोस्तों आप ये हमको कमेंट करके जरूर बताइये| इस कविता ने अगर आपका दिल छुआ हो तो इसे शेयर भी जरूर करें और हिंदीसोच से आगे भी ऐसे जी जुड़े रहिये धन्यवाद!!
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक…
वाकई बहुत ही जीवंत कविता लिखी है माखनलाल चतुर्वेदी जी ने। सही कहा गया है कि जहाँ ना पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि… देशभक्तों को समर्पित ये कविता अपने अंदर एक गहरा सन्देश छुपाए हुए है।
माखनलाल चतुर्वेदी जी इस कविता में बताते हैं कि जब माली अपने बगीचे से फूल तोड़ने जाता है तो जब माली फूल से पूछता है कि तुम कहाँ जाना चाहते हो? माला बनना चाहते हो या भगवान के चरणों में चढ़ाया जाना चाहते हो तो इस पर फूल कहता है –
मेरी इच्छा ये नहीं कि मैं किसी सूंदर स्त्री के बालों का गजरा बनूँ
मुझे चाह नहीं कि मैं दो प्रेमियों के लिए माला बनूँ
मुझे ये भी चाह नहीं कि किसी राजा के शव पे मुझे चढ़ाया जाये
मुझे चाह नहीं कि मुझे भगवान पर चढ़ाया जाये और मैं अपने आपको भागयशाली मानूं
हे वनमाली तुम मुझे तोड़कर उस राह में फेंक देना जहाँ शूरवीर मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना शीश चढाने जा रहे हों। मैं उन शूरवीरों के पैरों तले आकर खुद पर गर्व महसूस करूँगा।
ये कविता काफी लोगों ने हिंदी की किताबों में भी पढ़ी होगी लेकिन इसे पढ़कर रोम रोम खिल उठता है और एक देशभक्ति की भावना दिल में आती है। आपको ये कविता कैसी लगी ये कमेंट करके हमें जरूर बताएं,, धन्यवाद
भारत में रहते हो
भारत का खाते हो
फिर भी मुंह छिपाकर झंडे पाकिस्तान के फहराते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
आतंकियों से प्यार जताते हो
जनाजों में उनके उमड़े चले जाते हो
भूकंप बाढ़ तूफानों में फिर सेना-सेना क्यों चिल्लाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
भारत की जीत पर मातम
पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाते हो
जिस मिट्टी में तुमने जन्म लिया उससे गद्दारी कर जाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
धरती की ज़न्नत को जहन्नुम में बदला जिननें
उनके एजेंडो पर नौजवानों को बरगलाते हो
और अपने प्यारे बच्चों को विदेशों में पढ़ाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
सह लेती है सेना हुर्रियत को….पत्थरबाजों को
पर उसकी भी है एक सीमा
ये बात जरा सी तुम क्यों नहीं समझ पाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
छिड़ी हुई है हाथ की उंगलियों में लड़ाई
चारों कर रही हैं, अपनी महत्वता की अगुवाई
—
मध्यमा बोली, मैं हूं महान
कद में हूं ऊंची, तुम करो सम्मान
हो तुम मेरे, पहरेदार
मेरी रक्षा, तुम्हारा है काम
—
कनिष्ठा बोली, ज़रा करो नमस्कार
मेरे पीछे, दिखते हो तुम चार..
कद में चाहे, मैं छोटी हूं,
लेकिन, प्रथम मैं आती हूं।
—
कनिष्ठा पर हंसती, अनामिका
बोली मैं हूं, सौन्दर्य की मलिका
मुझपे चढ़ता अंगुठी का ताज
रिश्तों को मिलता, मुझसे नाम।
—
नाम के तर्क पर, तर्जनी बोली
मुझसे उपयोगी, तुम में से कोई नहीं
मैं दर्शाती, मैं दिखाती, आदेश देना, है मेरा काम
इसीलिए मैं हूं, सब में महान
—
चुपचाप अलग किनारे बैठा
आया अंगुठा, किया सवाल
क्या कभी है, तुम सबने सोचा
मेरे बिना, क्या कोई काम होता
न उठा पाते, कोई सामान
न नल बंद करना होता, इतना आसान
—
खिसिया के अंगुठे से बोली उंगलियां…
क्या तुम्हें लगता है तुम हो महान
—
अंगुठा बोला…
न मैं हूं महान… न तुम हो महान
हमारा साथ ही है, हमारा अभिमान
जो न होता हम में से कोई पांच
तो नहीं बन पाता, सुंदर हाथ।
भारत में रहते हो
भारत का खाते हो
फिर भी मुंह छिपाकर झंडे पाकिस्तान के फहराते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
आतंकियों से प्यार जताते हो
जनाजों में उनके उमड़े चले जाते हो
भूकंप बाढ़ तूफानों में फिर सेना-सेना क्यों चिल्लाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
भारत की जीत पर मातम
पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाते हो
जिस मिट्टी में तुमने जन्म लिया उससे गद्दारी कर जाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
धरती की ज़न्नत को जहन्नुम में बदला जिननें
उनके एजेंडो पर नौजवानों को बरगलाते हो
और अपने प्यारे बच्चों को विदेशों में पढ़ाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
—
सह लेती है सेना हुर्रियत को….पत्थरबाजों को
पर उसकी भी है एक सीमा
ये बात जरा सी तुम क्यों नहीं समझ पाते हो
जब ये ही करना है तुमको….
तो पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते हो?
मां फल-सब्जी जब काटती है,
उंगली पर उस को बांटती है,
चाकू की धार हो तेज़ मगर,
न फ़िक्र उसे, न कोई डर
वह धार के रुख़ पहचानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
—
ग़म, गुस्सा हो या बीमारी हो,
जैसी भी कोई दुश्वारी हो,
लेकिन वह ज़रा ना घबराए,
हर मसला पल में सुलझाए,
करती है वही, जो ठानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
—
करती है काम वह खड़ी-खड़ी,
जैसे हो उसे जादू की छड़ी,
आखिर वह क्यों थकती ही नहीं,
कल की राहें तकती ही नहीं,
वह आज की बात को मानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
—
बस एक ही आंचल है उसको,
वह काम बहुत उससे लेती,
कभी साफ करे, बर्तन पकड़े,
कुछ बांध के गांठ लगा लेती,
कभी पानी,दूध को छानती है।।
मेरी मां जादू जानती है…!
घुटनों से रेंगते रेंगते
कब पैरों पर खड़ा हुआ,
तेरी ममता की छाओं में
जाने कब बड़ा हुआ!
काला टीका दूध मलाई
आज भी सब कुछ वैसा है,
मैं ही मैं हूँ हर जगह
प्यार यह तेरा कैसा है?
सीधा साधा भोला भाला
मैं ही सबसे अच्छा हूँ,
कितना भी हो जाऊं बड़ा
माँ, मैं आज भी तेरा बच्चा हूँ!
पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए
शख्सियत ए ‘लख्ते-जिगर’, कहला न सका,
जन्नत के धनी वो पैर, कभी सहला न सका
पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए
शख्सियत ए ‘लख्ते-जिगर’, कहला न सका,
जन्नत के धनी वो पैर, कभी सहला न सका
सही क्या है, गलत क्या है,
ये सब बताते हैं आप,झूठ क्या है और सच क्या है
ये सब समझाते है आप,
जब सूझता नहीं कुछ भी
राहों को सरल बनाते हैं आप,
जीवन के हर अँधेरे में,
रौशनी दिखाते हैं आप,
बंद हो जाते हैं जब सारे दरवाज़े
नया रास्ता दिखाते हैं आप,
सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं
जीवन जीना सिखाते हैं आप!
गुरु बिन ज्ञान नहीं
गुरु बिन ज्ञान नहीं रे।अंधकार बस तब तक ही है,
जब तक है दिनमान नहीं रे॥
मिले न गुरु का अगर सहारा,
मिटे नहीं मन का अंधियारा
लक्ष्य नहीं दिखलाई पड़ता,
पग आगे रखते मन डरता।
हो पाता है पूरा कोई भी अभियान नहीं रे।
गुरु बिन ज्ञान नहीं रे॥
जब तक रहती गुरु से दूरी,
होती मन की प्यास न पूरी।
गुरु मन की पीड़ा हर लेते,
दिव्य सरस जीवन कर देते।
गुरु बिन जीवन होता ऐसा,
जैसे प्राण नहीं, नहीं रे॥
भटकावों की राहें छोड़ें,
गुरु चरणों से मन को जोड़ें।
गुरु के निर्देशों को मानें,
इनको सच्ची सम्पत्ति जानें।
धन, बल, साधन, बुद्धि, ज्ञान का,
कर अभिमान नहीं रे, गुरु बिन ज्ञान नहीं रे॥
गुरु से जब अनुदान मिलेंगे,
अति पावन परिणाम मिलेंगे।
टूटेंगे भवबन्धन सारे, खुल जायेंगे, प्रभु के द्वारे।
क्या से क्या तुम बन जाओगे, तुमको ध्यान नहीं, नहीं रे॥
सुन्दर सुर सजाने को साज बनाता हूँ
नौसिखिये परिंदों को बाज बनाता हूँ.चुपचाप सुनता हूँ शिकायतें सबकी
तब दुनिया बदलने की आवाज बनाता हूँ.
समंदर तो परखता है हौंसले कश्तियों के
और मैं डूबती कश्तियों को जहाज बनाता हूँ,
बनाए चाहे चांद पे कोई बुर्ज ए खलीफा
अरे मैं तो कच्ची ईंटों से ही ताज बनाता हूँ ।।
गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे
जो अच्छा है जो बुरा है उसकी हम पहचान करे,मार्ग मिले चाहे जैसा भी उसका हम सम्मान करे
दीप जले या अँगारे हो पाठ तुम्हारा याद रहे,
अच्छाई और बुराई का जब भी हम चुनाव करे
गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे,
हम स्कूल रोज हैं जाते
शिक्षक हमको पाठ पढ़ाते,दिल बच्चों का कोरा कागज
उस पर ज्ञान अमिट लिखवाते,
जाति-धर्म पर लड़े न कोई
करना सबसे प्रेम सिखाते,
हमें सफलता कैसे पानी
कैसे चढ़ना शिखर बताते,
सच तो ये है स्कूलों में
अच्छा इक इंसान बनाते,
सेना की जान जरूरी है,
या जबरन का मानवाधिकार जरूरी है?
—
जब बात देश की गरिमा की हो,
तो क्या अभिव्यक्ति का अधिकार जरूरी है?
—
बात बहुत हुई बरसों-तरसों,
अब एक लात जरूरी है।।
—
छोड़ो करना चर्चा टेबल पर,
सर्जिकल स्ट्राइक दो-चार जरूरी है।।
—
जब तक ख़तम हों ना जाएं ये कीड़े,
गोली की बौछार जरूरी है।।
—
बुजदिल हमला करते छिप-छिप कर हम पर,
अब कुनबे मेें भी उनके हाहाकार जरुरी है।।
—
चोटिल होती माँ की ममता घायल आँचल जिनसे है,
सीना ताने वो चलते हैं, अब उनकी हार जरुरी है ।।
—
बेसुध बैठी है जनता हम खुद ही खुद मेें उलझे है,
जो सुलगे ना हम इन बलिदानों पर तो खुद पे धिक्कार जरुरी है।।
—
काटे घर में बैठे दुश्मन एक ऐसी तलवार जरुरी है,
सेना की जान ज़रूरी है… सेना की जान ज़रूरी है…
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है,
खुशियों की बस इक चाहत है।
नया जोश, नया उल्लास,
खुशियाँ फैले, करे उजास।
नैतिकता के मूल्य गढ़ें,
अच्छी-अच्छी बातें पढें।
कोई भूखा पेट न सोए,
संपन्नता के बीज बोए।
ऐ नव वर्ष के प्रथम प्रभात,
दो सबको अच्छी सौगात।
नव वर्ष पर कविता – 2
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा
है उल्लासित फिर जग सारा
नई डगर है नया सवेरा, खुशियों से भरा नज़ारा
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा ….
ओस सुबह की है फिर चमकी, बिखरा करके छ्टा निराली
चेहरे दमके बगियाँ महकी, घर घर होली और दीवाली
फिर खिलकर फूल सतरंगे, हो प्रतिबिंबित तब सरिता में
प्रकृति को क्या खूब सँवारा…..
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा ….
हो उत्साहित गोरन्वित हम, लिए सोच में वही नयापन
निकल पड़े कुछ कर पाने को, नई दिशाएँ दर्शाने को
कर पाऊँ हर सपने को सच, जो तुम थामो हाथ हमारा ….
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा ….
नव वर्ष पर कविता – 3
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
सहज सरल मन से
सब को गले लगाए
उंच नीच भेद भाव के
अंतर को मिटाएं
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
शिक्षा का उजियारा हम
घर घर पहुंचाएं
पर्यावरण की चिंता करे
पेड़ फिर लगाए
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
स्वच्छता अभियान को
समझें समझाएं
योग प्राणायाम कर स्वस्थ
हम हो जाएं
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
देश प्रेम का जज्बा सभी
जन मन में लाएं
माँ भारती के चरणों में
शीश सब झुकाएं
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
नव वर्ष पर कविता – 4
नव वर्ष
हर्ष नव
जीवन उत्कर्ष नव ।
नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग ।
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह ।
गीत नवल,
प्रीति नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल !
नव वर्ष पर कविता – 5
नए वर्ष में नई पहल हो
कठिन ज़िंदगी और सरल हो
अनसुलझी जो रही पहेली
अब शायद उसका भी हल हो
जो चलता है वक्त देखकर
आगे जाकर वही सफल हो
नए वर्ष का उगता सूरज
सबके लिए सुनहरा पल हो
समय हमारा साथ सदा दे
कुछ ऐसी आगे हलचल हो
सुख के चौक पुरें हर द्वारे
सुखमय आँगन का हर पल हो
सभी के लिए ये नया साल मंगलमय हो
छिड़ी हुई है हाथ की उंगलियों में लड़ाई
चारों कर रही हैं, अपनी महत्वता की अगुवाई
—
मध्यमा बोली, मैं हूं महान
कद में हूं ऊंची, तुम करो सम्मान
हो तुम मेरे, पहरेदार
मेरी रक्षा, तुम्हारा है काम
—
कनिष्ठा बोली, ज़रा करो नमस्कार
मेरे पीछे, दिखते हो तुम चार..
कद में चाहे, मैं छोटी हूं,
लेकिन, प्रथम मैं आती हूं।
—
कनिष्ठा पर हंसती, अनामिका
बोली मैं हूं, सौन्दर्य की मलिका
मुझपे चढ़ता अंगुठी का ताज
रिश्तों को मिलता, मुझसे नाम।
—
नाम के तर्क पर, तर्जनी बोली
मुझसे उपयोगी, तुम में से कोई नहीं
मैं दर्शाती, मैं दिखाती, आदेश देना, है मेरा काम
इसीलिए मैं हूं, सब में महान
—
चुपचाप अलग किनारे बैठा
आया अंगुठा, किया सवाल
क्या कभी है, तुम सबने सोचा
मेरे बिना, क्या कोई काम होता
न उठा पाते, कोई सामान
न नल बंद करना होता, इतना आसान
—
खिसिया के अंगुठे से बोली उंगलियां…
क्या तुम्हें लगता है तुम हो महान
—
अंगुठा बोला…
न मैं हूं महान… न तुम हो महान
हमारा साथ ही है, हमारा अभिमान
जो न होता हम में से कोई पांच
तो नहीं बन पाता, सुंदर हाथ।
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है,
खुशियों की बस इक चाहत है।
नया जोश, नया उल्लास,
खुशियाँ फैले, करे उजास।
नैतिकता के मूल्य गढ़ें,
अच्छी-अच्छी बातें पढें।
कोई भूखा पेट न सोए,
संपन्नता के बीज बोए।
ऐ नव वर्ष के प्रथम प्रभात,
दो सबको अच्छी सौगात।
नव वर्ष पर कविता – 2
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा
है उल्लासित फिर जग सारा
नई डगर है नया सवेरा, खुशियों से भरा नज़ारा
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा ….
ओस सुबह की है फिर चमकी, बिखरा करके छ्टा निराली
चेहरे दमके बगियाँ महकी, घर घर होली और दीवाली
फिर खिलकर फूल सतरंगे, हो प्रतिबिंबित तब सरिता में
प्रकृति को क्या खूब सँवारा…..
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा ….
हो उत्साहित गोरन्वित हम, लिए सोच में वही नयापन
निकल पड़े कुछ कर पाने को, नई दिशाएँ दर्शाने को
कर पाऊँ हर सपने को सच, जो तुम थामो हाथ हमारा ….
अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा ….
नव वर्ष पर कविता – 3
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
सहज सरल मन से
सब को गले लगाए
उंच नीच भेद भाव के
अंतर को मिटाएं
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
शिक्षा का उजियारा हम
घर घर पहुंचाएं
पर्यावरण की चिंता करे
पेड़ फिर लगाए
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
स्वच्छता अभियान को
समझें समझाएं
योग प्राणायाम कर स्वस्थ
हम हो जाएं
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
देश प्रेम का जज्बा सभी
जन मन में लाएं
माँ भारती के चरणों में
शीश सब झुकाएं
नव वर्ष के आगमन पर
प्रेम गीत गाएं
नव वर्ष पर कविता – 4
नव वर्ष
हर्ष नव
जीवन उत्कर्ष नव ।
नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग ।
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह ।
गीत नवल,
प्रीति नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल !
नव वर्ष पर कविता – 5
नए वर्ष में नई पहल हो
कठिन ज़िंदगी और सरल हो
अनसुलझी जो रही पहेली
अब शायद उसका भी हल हो
जो चलता है वक्त देखकर
आगे जाकर वही सफल हो
नए वर्ष का उगता सूरज
सबके लिए सुनहरा पल हो
समय हमारा साथ सदा दे
कुछ ऐसी आगे हलचल हो
सुख के चौक पुरें हर द्वारे
सुखमय आँगन का हर पल हो
सभी के लिए ये नया साल मंगलमय हो
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नही विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
खम ठोक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब ज़ोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
है छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नही जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
कब्र के आगोश में जब थक के सो जाती है माँ,
तब कहीं जाकर थोड़ा सुकून पाती है माँ,
फिक्र में बच्चों के कुछ ऐसे ही घुल जाती है माँ,
नौजवा होते हुए बूढ़ी नज़र आती है माँ,
कब ज़रूरत हो मेरे बच्चे को इतना सोच कर,
जागती रहती है आँखें और सो जाती है माँ,
रूह के रिश्तों की ये गहराईयाँ तो देखिये,
चोट लगती है हमे और चिल्लाती है माँ,
लौट कर वापस सफर से जब भी घर आती है माँ,
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ,
शुक्रिया हो नही सकता कभी उसका अदा,
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है माँ,
मरते दम बच्चा अगर आ पाये ना परदेस से,
अपनी दोनों पुतलियाँ चौखट पे रख जाती है माँ,
प्यार कहते है किसे और ममता क्या चीज है,
ये तो उन बच्चों से पूछो,के जिनकी मर जाती है माँ।
गुरु की उर्जा सूर्य-सी, अम्बर-सा विस्तार.
गुरु की गरिमा से बड़ा, नहीं कहीं आकार.
गुरु का सद्सान्निध्य ही,जग में हैं उपहार.
प्रस्तर को क्षण-क्षण गढ़े, मूरत हो तैयार.
गुरु वशिष्ठ होते नहीं, और न विश्वामित्र.
तुम्हीं बताओ राम का, होता प्रखर चरित्र?
गुरुवर पर श्रद्धा रखें, हृदय रखें विश्वास.
निर्मल होगी बुद्धि तब, जैसे रुई- कपास.
गुरु की करके वंदना, बदल भाग्य के लेख.
बिना आँख के सूर ने, कृष्ण लिए थे देख.
गुरु से गुरुता ग्रहणकर, लघुता रख भरपूर.
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर.
गुरु ब्रह्मा-गुरु विष्णु है, गुरु ही मान महेश.
गुरु से अन्तर-पट खुलें, गुरु ही हैं परमेश.
गुरु की कर आराधना, अहंकार को त्याग.
गुरु ने बदले जगत में, कितने ही हतभाग.
गुरु की पारस दृष्टि से , लोह बदलता रूप.
स्वर्ण कांति-सी बुद्धि हो,ऐसी शक्ति अनूप.
गुरु ने ही लव-कुश गढ़े , बने प्रतापी वीर.
अश्व रोक कर राम का, चला दिए थे तीर.
गुरु ने साधे जगत के, साधन सभी असाध्य.
गुरु-पूजन, गुरु-वंदना, गुरु ही है आराध्य.
गुरु से नाता शिष्य का, श्रद्धा भाव अनन्य.
शिष्य सीखकर धन्य हो, गुरु भी होते धन्य.
गुरु के अंदर ज्ञान का, कल-कल करे निनाद.
जिसने अवगाहन किया, उसे मिला मधु-स्वाद.
गुरु के जीवन मूल्य ही, जग में दें संतोष.
अहम मिटा दें बुद्धि के, मिटें लोभ के दोष.
गुरु चरणों की वंदना, दे आनन्द अपार.
गुरु की पदरज तार दे, खुलें मुक्ति के द्वार.
गुरु की दैविक दृष्टि ने, हरे जगत के क्लेश.
पुण्य -कर्म- सद्कर्म से, बदल दिए परिवेश.
गुरु से लेकर प्रेरणा, मन में रख विश्वास.
अविचल श्रद्धा भक्ति ने, बदले हैं इतिहास.
गुरु में अन्तर ज्ञान का, धक-धक करे प्रकाश.
ज्ञान-ज्योति जाग्रत करे, करे पाप का नाश.
गुरु ही सींचे बुद्धि को, उत्तम करे विचार.
जिससे जीवन शिष्य का, बने स्वयं उपहार.
गुरु गुरुता को बाँटते, कर लघुता का नाश.
गुरु की भक्ति-युक्ति ही, काट रही भवपाश.
तेरी बुराइयों को हर अखबार कहता है..
और तू मेरे गाँव को गँवार कहता है….
ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है,
तू चुल्लू भर पानी को वाटर पार्क कहता है…
थक गया है हर शख्स काम करते करते,
तू इसे अमीरी का बाजार कहता है…
गाँव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,
तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है…
मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहा है,
तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है…
जिनकी सेवा में बिता देते सारा जीवन,
तू उन माँ-बाप को खुद पर बोझ कहता है…
वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है…
बड़े बड़े मसले हल करती यहां पंचायतें,
तू अँधी भष्ट दलीलों को दरबार कहता है…
बैठ जाते हैं अपने पराये साथ बैलगाड़ी में,
पूरा परिवार भी ना बैठ पाये उसे तू कार कहता है…
अब बच्चे भी बडों का आदर भूल बैठे हैं,
तू इस नये दौर को संस्कार कहता है…
जिंदा है आज भी गाँव में देश की संस्कृति,
तू भूल के अपनी सभ्यता खुद को तू शहर कहता है…!!
कवि ने अपनी इस कविता में एक-एक शब्द को गहरी भावनाओं के साथ पिरोया है| जिस प्रकार हर तरफ अब शहरीकरण बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे ही लोगों का मानसिक स्तर भी नीचे गिरता जा रहा है|
अब संस्कारों की बात कौन करता है, साहब हर इंसान अब सिर्फ पैसों की बात करता है|
माँ बाप अपने बच्चों के लिए अपने सारे सुख कुर्बान कर देते हैं और बच्चे बड़े होकर शहर पैसा कमाने चल देते हैं|
बूढी आँखें थक-थककर अपने बच्चों की राह तकती हैं लेकिन पैसे की चकाचौंध इंसान को अँधा कर देती है| कहने को शहर अमीर है लेकिन यहाँ सिर्फ पैसे के अमीर लोग रहते हैं, दिल का अमीर तो कोई कोई ही मिलता है|
परिवार, रिश्ते नाते अब सब बस एक बंधन बनकर रह गए हैं,
आत्मीयता और प्यार तो उनमें रहा ही नहीं,
जो माँ बाप अपना खून पसीना एक करके पढ़ाते हैं
उनको बोलते हैं कि आपने हमारे लिए कुछ किया ही नहीं|
इससे तो अपना गाँव अच्छा है कम से कम लोगों के दिल में एक दूसरे के लिए प्यार तो है, परेशानियों में एक दूसरे का साथ तो है, पैसा चाहे कम हो लेकिन संस्कार और दुलार तो है|
ये कविता आपको कैसी लगी दोस्तों आप ये हमको कमेंट करके जरूर बताइये| इस कविता ने अगर आपका दिल छुआ हो तो इसे शेयर भी जरूर करें और हिंदीसोच से आगे भी ऐसे जी जुड़े रहिये धन्यवाद!!
जिंगल बैल्स बस रहे हैं
साल खत्म हो रहा है
पर उससे पहले 25 दिसंबर
क्रिसमस आ रहा है,
क्रिसमस आ रहा है
क्रिसमस ट्री लायेंगे
उसे सजायेंगे
ऊँची डाली पर,
तारा लगायेंगे
अच्छे बच्चे बनेंगे,
सांता याद करेंगे,
तोहफे लायेंगे
हाथ मिलाएंगे
क्रिसमस आ रहा है,
क्रिसमस आ रहा है
क्रिसमस प्यार का उत्सव है,
जादू कर देता है,
मन को छू लेता है,
प्यार से भर देता है
क्रिसमस आ रहा है,
क्रिसमस आ रहा है…
क्रिसमस आया पास में, बच्चे करे पुकार
सान्ता लेकर आएंगे, झोला भर उपहार ।
झोले में उपहार है, और सर पे टोपी लाल
गोलू-मोलू गुड्डे जैसा, सान्ता लगे कमाल ।
टन-टन-टन टन-टन-टन घंटी वाला सान्ता आता
हो-हो-हो हो-हो-हो, हो-हो करके खूब हंसाता ।
सबको आता बहुत मजा, गाते गाना बार-बार
खुशियां लेकर आता है, क्रिसमस का त्यौहार
सान्ता के संग नाचे कूदे, आओ सारे करे धमाल
क्रिसमस के अगले हफ़्ते, आ जाएगा नया साल
रहे ना कोई बच्चा रोता, रहे ना कोई बड़ा उदास,
सबका क्रिसमस Merry हो, आओ ऐसा करे प्रयास
ठंडी ठंडी हवाओं में
कोई मैरी क्रिसमस गाता है
हर बार एक थैला भरकर
वो गिफ्ट लेकर आता है
माँ हमसे कहती है
वो बच्चो को करता है प्यार
हरे भरे क्रिसमस ट्री को
वो सुन्दर सजा के देता
दिसंबर 25 को आता वो
सांता – सांता कहलाता जो
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
– श्री हरिवंशराय बच्चन की कविता(Poems of Harivansh Rai Bachchan)
हरिवंशराय बच्चन जी की ये कविता मैंने नेट पर एक वेबसाइट से ली है। इस कविता के लिए कवि की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है। हर एक लाइन मोतियों की तरह जड़ी है। इसे पढ़ने के बाद मन को बहुत साहस मिलता है। मैं हरिवंश राय बच्चन जी को इस प्रेरक कविता के लिए बहुत धन्यवाद देना चाहता हूँ जिनकी कविता हर पढ़ने वाले को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। दोस्तों इस कविता को एक बार ध्यान ने जरूर पढ़ना मेरा वादा है कि आपको नयी ऊर्जा मिलेगी। कविता कैसी लगी, ये नीचे कॉमेंट में जरूर लिखें।
धन्यवाद!!!!
कई लोग इस रचना को हरिवंशराय बच्चन जी द्वारा रचित मानते हैं। लेकिन श्री अमिताभ बच्चन ने अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में स्पष्ट किया है कि यह रचना सोहनलाल द्विवेदी जी की है।
आ रही रवि की सवारी!
नव किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी!
आ रही रवि की सवारी!
विहग बंदी और चारण,
गा रहे हैं कीर्ति गायन,
छोड़कर मैदान भागी तारकों की फौज सारी!
आ रही रवि की सवारी!
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह,
रात का राजा खड़ा है राह में बनकर भिखारी!
आ रही रवि की सवारी
देखो, टूट रहा है तारा – हरिवंशराय बच्चन
नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
हुआ न उडुगन में क्रंदन भी,
गिरे न आँसू के दो कण भी
किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक, देखता रहता दूर खड़ा तारक-दल सारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
विश्व सारा सो रहा है – हरिवंशराय बच्चन
हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इनका संग तजकर,
व्योम–व्यापी शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
भूमि पर सर सरित् निर्झर,
किंतु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
न्याय–न्यायधीश भू पर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
रुके न तू, थके न तू – हरिवंशराय बच्चन
धरा हिला, गगन गुँजा
नदी बहा, पवन चला
विजय तेरी, विजय तेरी
ज्योति सी जल, जला
भुजा–भुजा, फड़क–फड़क
रक्त में धड़क–धड़क
धनुष उठा, प्रहार कर
तू सबसे पहला वार कर
अग्नि सी धधक–धधक
हिरन सी सजग सजग
सिंह सी दहाड़ कर
शंख सी पुकार कर
रुके न तू, थके न तू
झुके न तू, थमे न तू
सदा चले, थके न तू
रुके न तू, झुके न तू
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
हरिवंशराय बच्चन जी की ये कविता मैंने नेट पर एक वेबसाइट से ली है। इस कविता के लिए कवि की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है। हर एक लाइन मोतियों की तरह जड़ी है। इसे पढ़ने के बाद मन को बहुत साहस मिलता है। मैं हरिवंश राय बच्चन जी को इस प्रेरक कविता के लिए बहुत धन्यवाद देना चाहता हूँ जिनकी कविता हर पढ़ने वाले को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। दोस्तों इस कविता को एक बार ध्यान ने जरूर पढ़ना मेरा वादा है कि आपको नयी ऊर्जा मिलेगी। कविता कैसी लगी, ये नीचे कॉमेंट में जरूर लिखें।
धन्यवाद!!!!
आ रही रवि की सवारी!
नव किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी!
आ रही रवि की सवारी!
विहग बंदी और चारण,
गा रहे हैं कीर्ति गायन,
छोड़कर मैदान भागी तारकों की फौज सारी!
आ रही रवि की सवारी!
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह,
रात का राजा खड़ा है राह में बनकर भिखारी!
आ रही रवि की सवारी
देखो, टूट रहा है तारा – हरिवंशराय बच्चन
नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
हुआ न उडुगन में क्रंदन भी,
गिरे न आँसू के दो कण भी
किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक, देखता रहता दूर खड़ा तारक-दल सारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
विश्व सारा सो रहा है – हरिवंशराय बच्चन
हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इनका संग तजकर,
व्योम–व्यापी शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
भूमि पर सर सरित् निर्झर,
किंतु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
न्याय–न्यायधीश भू पर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
रुके न तू, थके न तू – हरिवंशराय बच्चन
धरा हिला, गगन गुँजा
नदी बहा, पवन चला
विजय तेरी, विजय तेरी
ज्योति सी जल, जला
भुजा–भुजा, फड़क–फड़क
रक्त में धड़क–धड़क
धनुष उठा, प्रहार कर
तू सबसे पहला वार कर
अग्नि सी धधक–धधक
हिरन सी सजग सजग
सिंह सी दहाड़ कर
शंख सी पुकार कर
रुके न तू, थके न तू
झुके न तू, थमे न तू
सदा चले, थके न तू
रुके न तू, झुके न तू
∼ हरिवंश राय बच्चन
सारे जहाँ से अच्छा
हिंदुस्तान हमारा
हम बुलबुलें हैं उसकी
वो गुलसिताँ हमारा।
परबत वो सबसे ऊँचा
हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा
वो पासबाँ हमारा।
गोदी में खेलती हैं
जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिनके दम से
रश्क-ए-जिनाँ हमारा।
मज़हब नहीं सिखाता
आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन है
हिंदुस्तान हमारा।
जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा
जहाँ सत्य, अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा
ये धरती वो जहाँ ऋषि मुनि जपते प्रभु नाम की माला
जहाँ हर बालक एक मोहन है और राधा हर एक बाला
जहाँ सूरज सबसे पहले आ कर डाले अपना फेरा
वो भारत देश है मेरा
अलबेलों की इस धरती के त्योहार भी हैं अलबेले
कहीं दीवाली की जगमग है कहीं हैं होली के मेले
जहाँ राग रंग और हँसी खुशी का चारों ओर है घेरा
वो भारत देश है मेरा
जब आसमान से बातें करते मंदिर और शिवाले
जहाँ किसी नगर में किसी द्वार पर कोई न ताला डाले
प्रेम की बंसी जहाँ बजाता है ये शाम सवेरा
वो भारत देश है मेरा
होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन।
हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन।
होगी शांति चारों ओर, एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होगी शांति चारों ओर एक दिन।
नहीं डर किसी का आज एक दिन
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज एक दिन।
जन गण मन अधि नायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा,
द्राविण उत्कल बंग।
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा,
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे,
तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जय-गाथा।
जन-गण-मंगलदायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता।
जय हे! जय हे! जय हे!
जय जय जय जय हे!
सही क्या है, गलत क्या है,
ये सब बताते हैं आप,झूठ क्या है और सच क्या है
ये सब समझाते है आप,
जब सूझता नहीं कुछ भी
राहों को सरल बनाते हैं आप,
जीवन के हर अँधेरे में,
रौशनी दिखाते हैं आप,
बंद हो जाते हैं जब सारे दरवाज़े
नया रास्ता दिखाते हैं आप,
सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं
जीवन जीना सिखाते हैं आप!
गुरु बिन ज्ञान नहीं
गुरु बिन ज्ञान नहीं रे।अंधकार बस तब तक ही है,
जब तक है दिनमान नहीं रे॥
मिले न गुरु का अगर सहारा,
मिटे नहीं मन का अंधियारा
लक्ष्य नहीं दिखलाई पड़ता,
पग आगे रखते मन डरता।
हो पाता है पूरा कोई भी अभियान नहीं रे।
गुरु बिन ज्ञान नहीं रे॥
जब तक रहती गुरु से दूरी,
होती मन की प्यास न पूरी।
गुरु मन की पीड़ा हर लेते,
दिव्य सरस जीवन कर देते।
गुरु बिन जीवन होता ऐसा,
जैसे प्राण नहीं, नहीं रे॥
भटकावों की राहें छोड़ें,
गुरु चरणों से मन को जोड़ें।
गुरु के निर्देशों को मानें,
इनको सच्ची सम्पत्ति जानें।
धन, बल, साधन, बुद्धि, ज्ञान का,
कर अभिमान नहीं रे, गुरु बिन ज्ञान नहीं रे॥
गुरु से जब अनुदान मिलेंगे,
अति पावन परिणाम मिलेंगे।
टूटेंगे भवबन्धन सारे, खुल जायेंगे, प्रभु के द्वारे।
क्या से क्या तुम बन जाओगे, तुमको ध्यान नहीं, नहीं रे॥
सुन्दर सुर सजाने को साज बनाता हूँ
नौसिखिये परिंदों को बाज बनाता हूँ.चुपचाप सुनता हूँ शिकायतें सबकी
तब दुनिया बदलने की आवाज बनाता हूँ.
समंदर तो परखता है हौंसले कश्तियों के
और मैं डूबती कश्तियों को जहाज बनाता हूँ,
बनाए चाहे चांद पे कोई बुर्ज ए खलीफा
अरे मैं तो कच्ची ईंटों से ही ताज बनाता हूँ ।।
गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे
जो अच्छा है जो बुरा है उसकी हम पहचान करे,मार्ग मिले चाहे जैसा भी उसका हम सम्मान करे
दीप जले या अँगारे हो पाठ तुम्हारा याद रहे,
अच्छाई और बुराई का जब भी हम चुनाव करे
गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे,
हम स्कूल रोज हैं जाते
शिक्षक हमको पाठ पढ़ाते,दिल बच्चों का कोरा कागज
उस पर ज्ञान अमिट लिखवाते,
जाति-धर्म पर लड़े न कोई
करना सबसे प्रेम सिखाते,
हमें सफलता कैसे पानी
कैसे चढ़ना शिखर बताते,
सच तो ये है स्कूलों में
अच्छा इक इंसान बनाते,